| | رأيت الذي قد جاء من أرض بابل |
1 | | رأيتُ | الذي | قدْ | جاءَ | من | أرضِ | بابلٍ |
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2 | | فقلتُ | له | أهلاً | وسهلاً | ومَرحباً |
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3 | | ألا | إنَّ | شرَّ | الناسِ | من | كان | أعزبا |
| *** | وإنْ | كان | بين | الناس | جمَّ | الفضائلِ |
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5 | | تأملْ | وجودَ | الأصل | إذ | شاء | كوننا |
| *** | فهلْ | كنتَ | إلا | بينَ | قولٍ | وقائلِ |
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7 | | | *** | تماماً | لكي | أربى | على | كلِّ | كاملِ |
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8 | | | *** | بحوليه | جوداً | كلَّ | عالٍ | وسافلِ |
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9 | | | *** | لآخذَ | عنه | العلمَ | من | غيرِ | حائلِ |
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11 | | | *** | عموماً | وتخصيصاً | لدى | كلِّ | عاقلِ |
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12 | | فلوْ | لمْ | يكنْ | لي | شاهدٌ | غيرَ | نشأتي |
| *** | على | الصورةِ | المثلى | كفاني | لسائلِ |
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15 | | | *** | صلاةً | على | رغمِ | الأنوفِ | الأوائلِ |
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17 | | | *** | فأسمنني | شرَّ | الخطوبِ | النوازِلِ |
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18 | | | *** | فنحكي | وما | يتلى | بعيرِ | المقاتلِ |
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19 | | بذا | جاءَ | لفظُ | العبدِ | فيها | لأنهُ |
| *** | غيورٌ | فينفي | عنهُ | جدَّ | المماثلِ |
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20 | | كما | جاءَ | في | الشورى | وفيهِ | تنبهٌ |
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24 | | ولكنها | الأوهامُ | لمْ | تخلُ | فيهمُ |
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25 | | فيعطيكَ | زهداً | بالأفولِ | ورغبةً |
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26 | | | *** | وما | يبتغي | غيرَ | النفوسِ | الغوافلِ |
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27 | | فلا | تطعمنْ | في | الحبِّ | فهوَ | خديعةٌ |
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28 | | | *** | تحلَّى | بها | قلبُ | الشجاعِ | المناضل |
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