عرض القصيدة رقم : 390 - الشكر لله لا أبغي به عوضا
| | الشكر لله لا أبغي به عوضا |
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2 | | خلى | ليَ | الأمرُ | في | الأكوانِ | أجمعها |
| *** | وغادرَ | القلبَ | مشغوفاً | بهِ | ومضى |
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3 | | | *** | | |
4 | | | *** | | |
5 | | لمَّا | سلكتُ | سبيلَ | الواصلينَ | إلى |
| *** | بحرِ | العماءِ | رأيتُ | الزاخراتِ | أضا |
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6 | | فقلتُ | هلْ | ثمَّ | بحرٌ | لا | يكونُ | لهُ |
| *** | سيفٌ | فقالوا | نعمْ | هذا | الذي | اعترضا |
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7 | | | *** | | |
8 | | | *** | ولا | يقاسون | همّاً | لا | ولا | مَضَضا |
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9 | | بحرُ | الثبوتِ | الذي | أبدى | جزائرهُ |
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10 | | والناسُ | سفرٌ | ولكنْ | منْ | جزائرِهِ |
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11 | | الإسمُ | يوجدُنا | والذاتُ | تعدمنا |
| *** | | |
12 | | | *** | وهيَ | الغذاءُ | لمنْ | قدْ | صحَّ | أوْ | مرضا |
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13 | | | *** | | |
14 | | | *** | وهوَ | الذي | حصلَ | المأمولَ | والغرضا |
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15 | | | *** | منَ | المباشرةِ | الزلفى | التي | انتهضا |
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16 | | | *** | | |
17 | | | *** | فزال | عن | نفسه | المثلُ | الذي | افترضا |
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