| | هنيئا لأهل الشرق من حضرة القدس |
1 | | هنيئاً | لأهلِ | الشرقِ | من | حضرةِ | القدسِ |
| *** | بشمسٍ | جلتْ | أنوارُها | ظلمةَ | الرمسِ |
| |
2 | | وجلتْ | عن | التشبيهِ | فهيَ | فريدةٌ |
| *** | فليستْ | بفصلٍ | في | الحدودِ | ولا | جنسِ |
| |
3 | | ويدركُ | منها | في | الكمالِ | وجودُنا |
| *** | كما | يدرك | الخفاشُ | منْ | باهرِ | الشمسِ |
| |
4 | | | *** | تصانُ | عنْ | التخمينِ | والظنِّ | والحدسِ |
| |
5 | | أتانا | بها | والقلبُ | ظمآنُ | تائهٌ |
| *** | إلى | المنظرِ | الأعلى | إلى | حضرةِ | القدسِ |
| |
6 | | | *** | فخاطبها | منْ | حضرةِ | النعلِ | والكرسي |
| |
7 | | أنا | البعلُ | والعرسُ | الكريمُ | رسالتي |
| *** | | |
8 | | | *** | | |
9 | | تولعتُ | بالتبليغِ | لمَّا | تبينتُ |
| *** | أمورَ | ترقيني | عنِ | الأنسِ | والإنسِ |
| |
10 | | ورحتُ | وقدْ | أبدتْ | بروقي | وميضها |
| *** | | |
11 | | | *** | وتهتُ | بلا | تيهٍ | عنِ | الجنِّ | والإنسِ |
| |
12 | | فيا | نفسُ | بذا | الحقِّ | لاحَ | وجودُهُ |
| *** | فإيّاكِ | والإنكار | يا | نفس | يا | نفسي |
| |
13 | | | *** | | |